बड़ी कंपनियों ने अपने ब्रांड नाम से मिलती-जुलती सस्ती जेनेरिक दवाएं बाजार में उतारीं तो मकसद था मरीजों को सस्ता बेचना। लेकिन इनकी अच्छी पैकिंग और उस पर लिखे एमआरपी ने धंधेबाजों को एक और अवसर दे दिया। वे इन जेनरिक दवाइयों को भी ब्रांडेड का स्थानापन्न (सब्स्टीट्यूट) बताकर महंगे दाम पर बेच रहे हैं। ग्राहकों को 30 प्रतिशत छूट का लाभ देकर इस तरह की दवाओं को आराम से ग्रामीण बाजार में बेच दिया जा रहा है।
बड़ी कंपनियों ने अपने ब्रांड नाम से मिलती-जुलती सस्ती जेनेरिक दवाएं बाजार में उतारीं तो मकसद था मरीजों को सस्ता बेचना। लेकिन इनकी अच्छी पैकिंग और उस पर लिखे एमआरपी ने धंधेबाजों को एक और अवसर दे दिया।
वे इन जेनरिक दवाइयों को भी ब्रांडेड का स्थानापन्न (सब्स्टीट्यूट) बताकर महंगे दाम पर बेच रहे हैं। ग्राहकों को 30 प्रतिशत छूट का लाभ देकर इस तरह की दवाओं को आराम से ग्रामीण बाजार में बेच दिया जा रहा है।
अब मार्केट में सिपला, मैनकाइंड, कैडिला, फाइजर जैसी प्रतिष्ठित दवा कंपनियाें ने भी अपनी ब्रांडेड के अलावा जेनेरिक दवाएं भी बाजार में उपलब्ध कराई हैं। इन कंपनियों की जेनेरिक दवाइयों की पैकेजिंग भी ब्रांडेड जैसी ही होती है। बुखार के सबसे आम दवा पैरासिटामॉल को एक नामी कंपनी ने पैरासिप के नाम से उतारा है। इसी प्रकार एलर्जी की सबसे चर्चित दवा सिट्रीजीन का विकल्प एलर्जीन है।
कैल्शियम, विटामिन और डी-3 को मिलाकर बने टेबलेट एमकॉल का विकल्प जेनरिक में जिरकॉल के नाम से है। एक ही ब्रांड की इन दवाइयों की कीमत में जमीन-आसमान का अंतर है। जोड़ों में दर्द से संबंधित एक कंपनी की ब्रांड वाली दवा की 10 टैबलेट का पत्ता जहां 347 रुपये की है, वहीं उसकी जेनेरिक दवा का पत्ता 84 रुपये का है।